Sunday, 16 March 2025

संजीवनी

रात के अँधेरे में भी आसमान में वो लाल धुआं...काली रात को चीरते हुए मानों सीधे चांद छूने की कोशिश कर रहा हो...हवा में ऐसी गंध जो साक्षात् यमराज के होने का प्रमाण दे रही हो...बाईं तरफ जहां तक नजर जाए वहां तक अथाह समुद्र... लहरों पर चांद की परछाईं और दूसरी तरफ दाईं ओर थोड़ी ऊंचाईं पर...बड़े बड़े दो दरवाजे के पीछे वो सोने सा चमकता शहर...चांद का अक्श और उस शहर की परछाई...मानों इस भीड़ से दूर लहरों पर सवार होकर दोनों छिप के मिलना चाह रहे हों...

मगर इन लहरों और उस शहर के बीच है वो लाखों की भीड़...जो सन्न है...ऐसा सन्नाटा जहां सिर्फ लहरों का शोर है...या जहां चिताओं की जलती लौ की चिडचिड़ाहट भी चीख रही है...

भीड़ के बीचों बीच वो शख्स बैठा है...एक बड़े पत्थर के सहारे...लहरों से इतना नजदीक की...कि जब लहरें किनारे पत्थरों से टकरा रही हैं...तो समुद्र के खारे पानी के छींटे सीधें उसकी आंखों में जा रही हैं...समुद्र को एक बाण से सुखा देने का दम रखने वाले राम भी अपनी आंखों से आंसू छलकने से रोक नहीं पा रहे हैं...रोए जा रहे हैं...अपनी गोद में निर्जीव से पड़े लक्ष्मण को निहारते हुए...लक्ष्मण की जटाओं में रेत के जो कण लगें हैं उनको राम हटाते हैं

जो लक्ष्मण हर कदम पर राम का सहारा थे...आज वो राम के सहारे राम की गोद में लेटे हैं...और राम...पत्थरों के सहारे बैठे हुए...पूरी की पूरी रात जाग कर पहरा देने वाले लक्ष्मण वनवास में जब पहली बार इस तरह सोये भी तो राम सहम गए...मानों जग के पालनहार भी असहाय हों...इतने असहाय की न खुद कुछ कह रहे न राजीवनयन...

गोल घेरा बना के पूरी की पूरी सेना बैठी है...लेकिन कोई कुछ न समझ पा रहा...न कोई कुछ कह पा रहा...धरा के दो सबसे बड़े योद्धाओं की ये गति देखकर न सुग्रीव समझ पा रहे...न जामवंत से कुछ कहा जा रहा...सब शांत...


राम जरा ठिठके...इतने सारे ख्याल जहन में उमड़ पड़े...मानों लक्ष्मण संग बिताया हर लम्हा एक पल में घूम गया हो...याद आया कैसे महाराज दशरथ ने जब वनवास वाली बात कही तो लक्ष्मण राम के लिए महाराज से ही भिड़ गए...राम से यहां तक कह दिया कि वनवास जाने की कोई जरूरत ही नहीं है...आप युवराज हैं और सप्त सिंधू के सिंहासन पर आपका ही अधिकार है...छोटे भाई के शेषनाग से गुस्से को भी राम ने कैसे मुस्करा कर शांत कराया था...उन्हें याद आया...


विदेह की सभा में दुनिया के वीरों में जब कोई कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाया था...तब भी लक्ष्मण खुद परशुराम से वाद-विवाद करने लगे थे...


याद आया कि कैसे पूरे वनवास राम का एक पैर सीता और एक पैर लक्ष्मण दबाते थे...और जब केवट ने नांव चढ़ाने से पहले दोनों पैर धोने की शर्त रख दी...तो लक्ष्मण ने उसे मारने के लिए धनुष उठा लिया था...हालांकि कई बार उनके लखन ने बहुत ही संयम स्वभाव भी दिखाया था...निषादराज की जब घास फूस की कुटिया में राम को सोना पड़ा...तो निषादराज  की आंखों में आंसू थे कि रघुकुलनंदन कंद मूल खा कर वनवास में घास पर सो रहे हैं...तब लक्ष्मण ने ही निषादराज को मानव जीवन के संघर्षों और कर्म के बारे में समझाया था...अर्धनिद्रा में लीन राम को तब छोटे भाई की ये बातें सुन कर बड़ा संतोष मिला था...


भाई ने कभी साथ नहीं छोड़ा...राम इतने संघर्षों में कभी अकेले नहीं रहे...जब हनुमान से भेंट नहीं हुई थी...तब भी लक्ष्मण साथ थे...वैदेही हरण के बाद भी लक्ष्मण थे...वनवास राम को हुआ था...जिद कर लक्ष्मण भी साथ आए...राम याद करने की कोशिश कर रहे हैं कि कोई तो ऐसी मुश्किल घड़ी तो रही होगी जब लक्ष्मण साथ न रहे हों...दुनिया के हर सवाल का जो खुद जवाब हैं...ऐसे राम को भी इसका उत्तर नहीं मिल रहा है...पर कई और सवाल आ गए...मां कौशल्या ने जरूर कहा था कि सीता और लक्ष्मण का ख्याल रखना...पर उर्मिल और मां सुमित्रा को तो राम पे इतना यकीन था कि उन दोनों ने तो कुछ कहा ही नहीं...महल जा कर क्या जवाब दूंगा... अयोध्या की चौहद्दी में बिन लक्ष्मण कदम भी कैसे रखूंगा...अब बिन लक्ष्मण जनकनंदनी को खोज भी पाऊंगा मैं...सीता मिलीं तो क्या कहूंगा कि लक्ष्मण...हारता हुआ इंसान जैसे अपनी हर बीती कहानी में काश और शायद ढ़ूढ़ने लगता है...राम भी वहीं कर रहे हैं कि शायद वनवास आता ही न....काश लक्ष्मण की ही बात मान ली होती...और पता नहीं क्या क्या राम सोचे जा रहे हैं...

अचानक मानों राम को कुछ याद आता है....आसमान में कुछ खोजने लगते हैं...पहले सामने की तरफ और फिर हल्का सा उतना मुड़ कर की गोद में सो रहे लक्ष्मण को कोई परेशानी ना हो..आसमान में पीछे देखने लगते हैं...चांद दूसरे हिस्से की तरफ बढ़ रहा था...आंसू बह रही आंखों को राम बंद करते हैं कि आंखे फिर डबडबाने लगती हैं...इसी स्थिति में सूर्यवंश के सूर्य...चंद्रमा से विनती करते हैं...कि अभी अस्त मत होना...


और फिर तभी अचानक हनुमान नजर आते हैं...मानों सारे बादल छट कर फिर उजाला हो गया

संजीवनी लक्ष्मण को नहीं राम को मिली थी...


Monday, 27 November 2023

प्यारा लगने लगा ये वनवास मुझे

 नहीं रही घर आगमन की आस मुझे

प्यारा लगने लगा ये वनवास मुझे


मोह खत्म हुआ अब रिश्तों की डोर का

राह दिखा रहा बुद्ध का संन्यास मुझे


समाधि में वैभव की चाह कहां

नहीं बुरा लगता मेरा उपहास मुझे


किसी लम्स में अब अना कैसी

शांत कर देता है ईश का आभास मुझे


~ Ayush Suryavanshi

Sunday, 3 January 2021

रात यूँ ही ढलती रहेगी



यूँ ही तारीखें बदलती रहेंगी
दूरियाँ ऐसे ही बढ़ती रहेंगी
होते पास तुम तो बात यूँ न बदलती
अब छिड़ गई है बात
तो रात यूँ ही ढलती रहेगी
शब और सहर में अब फासला ना होगा
तुम आए हो आज घर
मंज़ूर हो न हो
आग यूँ ही जलती रहेगी
साँस यूँ ही चलती रहेगी
रात यूँ ही ढलती रहेगी

दूरियाँ दूरियाँ लाई हैं
दूर थे जो दूर
वो क़रीब जायेंगे
पुराने ज़ख्म भरते रहेंगे
नए बनते रहेंगे
ज़िन्दगी यूँ ही कटती रहेगी
बात शुरू हुई है
तो रात भर ये बढ़ती रहेगी

तेरी यादों के किस्से आये है
खुशियों में नमी भी लाए हैं
आज रुक जा इस शब में
बात छिड़ गयी है तो बात बढ़ती रहेगी
रात जलती रहेगी, साँस चलती रहेगी,
रात यूँ ही ढलती रहेगी।

Photo by Rene Asmussen from Pexels

ठहर-ठहर कहर है जिंदगी




 ठहर-ठहर कहर है जिंदगी

मानो उजड़ता हुआ शहर है जिंदगी


सांसों की कैद में है रूह की आज़ादी

थकती आहों की नज़र है जिंदगी


यकीन, डर और ख्वाब की रुबाई जिंदगी

मोहब्बत में सियासत का ज़हर है जिंदगी


मुफलिसी, फकीरी, गुरबत है जिंदगी

बूढ़ी आंखों में तार की खबर है जिंदगी


जिंदगी में जिंदगी, बची कितनी जिंदगी

जली बस्ती, सूना घर, बस खंडहर है जिंदगी

                - आयुष सूर्यवंशी


Photo by Lukas from Pexels

Saturday, 8 August 2020

घर से निकल जाएगा वो तो फिर आएगा नहीं

Black Rocks – Ilmi Prints 

घर से निकल जाएगा वो, तो फिर आएगा नहीं

नाराज अगर वो हुआ तो मनाएगा नहीं

बहुत बेगैरत सा यकीनन लगता है वो तुम्हें

पर एक बार हाथ से गया तो फिर वापस आएगा नहीं

 

माथा चूम के जो संवार देता है जुल्फें तुम्हारी

निकल जाने के बाद वो वापस गले लगाएगा नहीं

मोहब्बत करना,फिक्र करना अगर गलती है

इस गुनाह पर खुदा भी सिर झुका पाएगा नहीं

            

                    

                आयुष सूर्यवंशी

Monday, 8 July 2019

ड्राइविंग सीट


वो कहते हैं न कि लड़कियों की अच्छी ड्राइविंग स्किल्स नहीं होती,,,अब ये राम जी ही जानें या लड़कियां ही जाने...ड्राइविंग से उनकी वो बात याद आती है इस रिश्तें में ड्राइविंग सीट पर आरवि बैठी थी...और मैं उसके पीछे यानि बैक सीट पर, उसने जहां चाहा मन मुताबिक मोड़ा, जहां मन किया ब्रेक लगाया और बीच रास्ते में ही सीट छोड़ कर उतरकर कह दिया – ये लो संभालो अपनी गाड़ी, आज अफसोस होता है कि जिस ड्राइविंग सीट पर वो थी, कम से कम वहां बैठ ये गाड़ी चलाना तो सीख सकता था मैं ?”.
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पर मैं चाहता हूं कि इस नवजात रिश्ते की गाड़ी तुम्हीं संभालो हमेशा, जैसा पहले दिन से संभालती-संवारती आई हो, जैसे हर दिन इसे खूबसूरत मोड़ दिया है, ठीक वैसे ही...और हां मुझे हादसे का डर नहीं है, अपनी मौत का भी नहीं,,,और शायद इसीलिए इस नवजात रिश्ते को मैं जिंदा रखना चाहता हूं...जैसे तुम्हें खुश देख, सूकून में देख, मैं लम्हें सूकून में गुजार लेता हूं ना, ठीक वैसे ही एक उम्र गुजारने की ख्वाहिश है,..अपने इस नवजात रिश्ते को बड़ा होते देख...इसे हंसता देख...इसके रोने पर तुम्हें चुप कराता देख....इसके नाराज होने पर तुम्हें इसे मनाते देख और बिस्तर पर हम दोनों के साथ इसे सूकून में सोता देख...

Tuesday, 19 February 2019

हजारों शर्तें उसकी, कुछ तुम्हारी मजबूरियां भी होंगी

जब रास्तों ने ही मुँह मोड़ लिया हमसे...

हजारों शर्तें उसकी
कुछ तुम्हारी मजबूरियां भी होंगी
चूमकर माथा, जिसे लगाया सीने से
उस रिश्ते में एक दिन दूरियां भी होंगी


बिस्तर पर महक न होगी उसकी
न स्याह जुल्फों का आंचल होगा
तन्हा-सर्द रातों में उस सुकूं को ढूंढ़ता
 नशे में तेरा दिल भी पागल होगा

जिसकी हर गलती पर माथा चूमा था तुमने
उस रिश्ते का  तु ही गुनहगार भी होगा
आवारा घुमता सड़कों पर, तु खुद कहेगा
ऐ खुदा अब कभी प्यार न होगा

तेरी नादानी देख ऊपरवाला फिर मुस्कराएगा
कुछ दिन में तेरा दिल भी कहीं लग जाएगा
पर न वो रिश्ता होगा, न वो निभाने वाला
मलाल तुझको होगा और खुदा भी पछताएगा

हजारों शर्तें उसकी होंगी
कुछ तुम्हारी मजबूरियां भी होंगी


Monday, 24 December 2018

एक ‘नवजात’ रिश्ता



              

रिश्ते जो अक्सर एक नाम से शुरू होते हैं...शायद हम दोनों के सिलसिले में ऐसा नहीं था...ये नाम से शुरू तो नहीं हुआ लेकिन दिल के कोने में एक बात है जरूर कि शायद कभी इसका भी एक नाम हो !
एक नवजात से बच्चे को देखा है न...?
हाथों में उठाकर महसूस किया है न...?
मैंने नहीं किया...पर शायद एहसास मुझमें कहीं समाया हुआ है...कहीं जिंदा है मुझमें...वो बच्चा जो अपने आस-पास की दुनिया में हर वक्त कुछ तलाशता रहता है..हमारा ये रिश्ता भी शायद उस नवजात की तरह है...

नहीं ! नवजात का मतलब ये बिलकुल भी नहीं कि ये रिश्ता नया या नादान हो.... नवजात का मतलब है कि इस रिश्ते को...हम दोनों इतनी शिद्दत से पाल रहे हैं...जैसे एक मां अपने नवजात को पालती है...इस बच्चे को...इस रिश्ते को...तुम कहती हो ना कि ये बच्चा..ये रिश्ता मर जाएगा एक दिन !

बस इतना ही सोच कर देखो न कि अगर हमारे बच्चे(रिश्ते) की मौत हमें पता है...मौत की वजह भी पता हो...तारीख भी पता हो...तो क्या, हम उसकी फिक्र करना छोड़ देंगे?...हम उसे चाहना छोड़ देंगे?....या हम उसे पालना छोड़ देंगे ?

अपने इस बच्चे को...इस रिश्ते को...मैं इसके आखिरी वक्त तक मुस्कुराते देखना चाहता हूं....इसे इसके आखिरी लम्हें तक मैं इसे मोहब्बत देना चाहता हूं...और पता है...?
जब इस बच्चे की धड़कने बंद हो जाएंगी...मेरी और तुम्हारी गोद में ये रोना बंद कर देगा...बिस्तर पर हम दोनों के बीच सोते हुए...देर रात तक परेशान करके...हमें जगाना बंद कर देगा...यानि ये खत्म हो जाएगा...तो भी मैं इसे किसी को जलाने नहीं दूंगा...मैं किसी को इसे नदी में बहाने नहीं दूंगा...मैं किसी को इसे तह-ए-खाक में दफनाने नहीं दूंगा....
मैं इसे दफन कर लूंगा खुद में...जहां वो सिर्फ मेरा बनकर रह जाएगा...पर मैं इसे इसकी आखिरी सांस तक पालुंगा...अपनी एक-एक सांस देकर के भी.
याद है, एक दिन तुमनने इस बच्चे को एक नाम देने के लिए कहा था?मेरे मना करने पर तुम नाराज हो गए थे...याद है न...? क्या नाम देना ही इसकी मौत का इलाज है...? अगर है तो नाम देना वाजिब होगा...और अगर नहीं तो इसकी पहचान मुझे और तुम्हें रहने दो...इसकी पहचान हमसेरहने दो...मैं इसके नाम से ज्यादा इसके इस पहचान से खुश हूं...जिसके मां-बाप और पहचान हम दोनों हैं...

मैं चाहता हूं कि तुम हमारे इस बच्चे के आखिरी वक्त में इसके साथ रहो...शायद अपने आखिरी वक्त में तुम्हें साथ पाकर इसका लाइलाज दर्द कम हो...और तुम कहते हो न कि हर मां-बाप अपने बच्चों के लिए जो करते हैं...वो फर्ज है उनका...समाज के दिखावे के लिए करते हैं...
इस बच्चे को पालने में हमने समाज को कितना दिखाया है...कितना फर्ज निभाया है...या फिर इन दोनों से इतर हम दोनों ने ही इसे बेहद ही शिद्दत से पाला है...बिना खुदगर्जी के...हर उस मां-बाप की तरह जो अपने बच्चों को बेमकसद खुश देखना चाहता है....ये तुम तय कर लेना...
लगता है इस बच्चे को जन्म मैंने दिया है...और तुमने इसे ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाया है...

Saturday, 31 March 2018

रिश्तों का व्यापार भी किया है हमने

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इश्क़ ही नहीं कारोबार भी किया है हमने
कुछ रिश्तों का व्यापार भी किया है हमने

नुमाइश की बात ख्वाहिश तक सिमटी नहीं
अपनी जिंदगी को अख़बार भी  किया है हमने


काफिर हूं मैं, फिर भी हर दर सजदा कर
अपने दिल को दरबार भी किया है हमने

ऐतराम भी किया है हमनें, हराम भी किया है हमने
तड़पते दिलों को और बेकरार भी किया है हमने

Sunday, 11 March 2018

दफन करता हूँ

ख़्वाहिशों को ख़ुद में ही दफन करता हूँ
जिस्म को ही रूह का क़फ़न करता हूँ

ना मुक्कमल सी ज़िंदगी की बस इतनी सियासत है
ख़ुद पर तरस खा कर, ख़ुद पर ही रहम करता हूँ

ख़ुद का वजूद ख़ुद में तलाशता हूँ
किसी की मंज़िल नहीं, मैं सिर्फ रास्ता हूँ
देख मुझे, मैं कितना सब्र करता हूँ
बिस्तर को ही रोज़ मैं अपनी क़ब्र करता हूँ

दुनिया, आहिस्ते से न उजाड़ मुझे
रहन दे, तह-ए-ख़ाक से न उखाड़ मुझे
ख़ाक के सुपुर्द-ए-ख़ाक की ख़बर करता हूँ
ले इब्तेदा अलविदा -ए- सफ़र करता हूँ

Thursday, 15 February 2018

मैं अशरफ मीर हूँ


एक नाकाम कोशिश, हर मुकम्मल शहादत के लिए


हिन्द का ग़ुरूर हूँ, मैं वादी ए कश्मीर हूँ
देख पाकिस्तान देख, मैं अशरफ मीर हूँ

वतन पे क़ुर्बान हूँ, हिन्द का गुमां हूँ
शहादत की नयी नज़ीर हूँ, मैं अशरफ मीर हूँ

अपनों का अपना, ग़ैरों का आईना हूँ
जन्नत के जन्नत बनने का मुन्तज़िर हूँ, मैं अशरफ मीर हूँ


रग़ों से हिन्दोस्तां, करम से चराग़ ए हिदायत हूँ
देख मैं भारत माँ की नयी तस्वीर हूँ
देख मैं कश्मीर की नयी तक़दीर हूँ
नज़ीर हूँ, कश्मीर हूँ, मैं अशरफ मीर हूँ

Monday, 12 February 2018

आइये देखिए


आइये उड़ते एहसासों का ये खेल देखिये
उखड़ती सांसों का ये मेल देखिये
क़द्र किए गए रिश्तों का उड़ता माखौल देखिये

शिद्दत का सिला देखिये
मोहब्बत का गिला देखिये
देखिये इब्तेदा ए इश्क़ की आग देखिये
इन्तहां ए इश्क़ में बुझा हुआ चराग़ देखिये

रिश्तों के नाम पर हथेली में मेरे ख़ाक देखिये
देखिये मेरे दिल का सुलगता राख़ देखिये

देखिये दिल का ये मेला देखिये
यादों का झमेला देखिये
देखिये मेरे रूहानी एहसासों का खेला ये देखिये

बातें कहां हुईं ख़त्म ये देखिये
इश्क़ का उभरता हुआ ज़ख्म ये देखिये

देखिये हमारे हर्फ़ों और एहसासों की नुमाइश देखिये
मेरे सामने मेरी मरती हुई ख़्वाहिश देखिये

Sunday, 17 December 2017

क्यों किया ऐसा? उनका सवाल यही था

क्यों किया ऐसा, उनका सवाल यही था...


अयोध्या में सरयू नदी
FICTION

आज सूरज की चमक फीकी लग रही थी...रोशनी में फीकापन ऐसा मानों सुबह होने से पहले ही शाम हो गई हो...सूर्य ग्रहण जैसा कुछ लग रहा था...वो महल से निकल कर पूरब की ओर निकले...उसी पूरब की ओर जहां सरयू से हर रोज सूरज निकलता...और शाम को पश्चिम में अगली सुबह तक के लिए उसी सरयू में ही डूब जाता...दरअसल सरयू नदी महल से पूरब दिशा में बहती थी और थोड़ी ही दूर आगे जाकर फिर पश्चिम को आकर घूम, उत्तर को चली गई थी...ऐसा लगता था कि सरयू माई अपने नाराज बेटे साकेत(अयोध्या) को मनाने वापस आई हों, और फिर उसे मुस्कराता देख वापस अपनी बहनों से मिलने मंजिल की ओर बह चली हों....
चलते-चलते वो घाट तक पहुंचे...सरयू माई के आंचल में, जहां वो बचपन में खेला करते थे, जहां आंचल में बैठ सरयू माई से बात किया करते थे...सिर्फ वही नहीं सूर्यवंश का हर सूरज सरयू माई से ही निकला था...इक्षवाकु से लेकर रघु और प्रतापी दशरथ भी सरयू माई के आंचल में ही पले बड़े थे...

पर आज सरयू माई भी शांत थी...सूरज की तरह...सूरज की उसी फीकी रोशनी की तरह...इक्षवाकु के राज्य से लेकर आज तक सरयू में कुछ बदला नहीं था...सिर्फ घाट पर लगे पत्थर उगते और ढूबते सूरज के सिलसिले में चिकने हो गए थे,,,किनारे पर जो पेड़ हुआ करते थे...उनकी जगह नए पेड़ आ गए थे...पेड़ों पर बंदरों और चिड़ियों की नई पीढ़ियां आती रहती...पर सरयू माई का प्यार हमेशा से ही था, अविरल, शांत और अपने बेटे साकेत और अवधवासियों के लिए मां के दुलार को समेटे...


लेकिन आज सब कुछ अजीब सा लग रहा था...सूरज की फीकी रोशनी...सरयू का शांत जल...सप्त सिंधु की राजधानी अयोध्या में रंग ही नहीं था आज...लग ही नहीं रहा था कि ये राम राज्य हो...ऐसा था जैसे अयोध्या से लक्ष्मी जी वापस विष्णु के पास लौट गई हों,,,वो भी सोच रहे थे कि अयोध्या इतनी बेरंग कैसे हो सकती है?
पहले से ही जहन में उठ रहे सवालों का जवाब खुद को बना रहे थे पर इस सवाल का जवाब खुद अयोध्यानाथ भी नहीं थे...

परेशान थे बहुत ज्यादा,,,हद से ज्यादा...जिस धैर्य और धीरज के लिए जाने जाते थे...वो भी परे था...हारकर घाट पर ही बैठ गए...सरयू के स्थिल जल को निहारते हुए...ठीक वैसे ही जैसे बचपन में निहारा करते थे...जब महल में मन नहीं लगता...हारे जा रहे थे...निहारे जा रहे थे उस जल को ही...उनकी नजरें...जल का प्रवाह...अयोध्या,,,सब रुका हुआ...

उनकी नजरों के सामने सरयू के जल में उनके पीछे का पेड़, घाट की सीढ़ियां और खुद अवध नरेश की परछाई दिख रही थी...इन सारी परछाइयों को नजरअंदाज कर सिर्फ अपनी आंखों को पानी में देख रहे थे...निहारे जा रहे थे,,,कुछ ढूंढ़ते हुए...शायद जहन में उठ रहे सवालों का जवाब ढूंढ़ते हुए...

पर उन आँखों ने पूछ ही लिया उनसे-क्यों किया आपने ऐसा?

सियावर ने मर्यादा पुरुषोत्तम से फिर पूछा- क्यों किया आपने ऐसा?

इस सवाल पर मर्यादा पुरुषोत्तम की आंखों से आंसू निकले और पानी की परछाई में सियावार की आंखों में समा गए...आंसुओं से दिल हल्का नहीं हुआ...आंसू गिरकर खुद में ही समा गए थे...इन दोनों के साथ सरयू माई भी देख रही थी ये सब...

सियावर राम ने मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र से फिर पूछा-- क्यों किया ऐसा आपने?

मर्यादा पुरुषोत्तम के पास जवाब नहीं था आज, सब जीतकर खुद से ही हार रहे थे...इस जंग में न लक्ष्मण साथ थे और न ही हनुमान...आज राम अकेले लड़ रहे थे...

सियावर ने तिलमिलाए हुए फिर वही सवाल पूछा-- क्यों किया आपने ऐसा?
जिस सीता से मैं इतना इश्क करता था, जिस सीता के लिए मैने शंभू धनुष तोड़ा...जिस सीता के लिए मैने रावण का वध किया...उस सीता को आपने प्रजा के मिथ्य दोष पर........सियावर बात पूरी भी नहीं कर पाए और फफक कर मर्यादा पुरुषोत्तम के सामने ही रो पड़े...

आंसू की हर बूंद सरयू माई के दिल में पत्थर की तरह डूब रही थी...माई ने लाखों-करोड़ों दिन देखे थे...पर सूर्यवंश की रोशनी को कभी फीका पड़ते नहीं देखा था...

मर्यादा पुरुषोत्तम शांत थे...देखे जा रहे थे...शून्यता का भाव लिए...बिलकुल वही शून्यता का भाव...जो उनके चेहर पर तब था जब सीता मां अवध छोड़ कर जा रही थीं