रिश्ते जो अक्सर एक नाम से शुरू होते
हैं...शायद हम दोनों के सिलसिले में ऐसा नहीं था...ये नाम से शुरू तो नहीं हुआ
लेकिन दिल के कोने में एक बात है जरूर कि शायद कभी इसका भी एक नाम हो !
एक नवजात से बच्चे को देखा है न...?
हाथों में उठाकर महसूस किया है न...?
मैंने नहीं किया...पर शायद एहसास मुझमें कहीं
समाया हुआ है...कहीं जिंदा है मुझमें...वो बच्चा जो अपने आस-पास की दुनिया में हर
वक्त कुछ तलाशता रहता है..हमारा ये रिश्ता भी शायद उस ‘नवजात’ की तरह है...
नहीं ! ‘नवजात’ का मतलब ये बिलकुल भी नहीं कि ये रिश्ता नया या नादान हो.... ‘नवजात’ का मतलब है कि इस रिश्ते को...हम दोनों इतनी शिद्दत से पाल रहे हैं...जैसे एक मां अपने ‘नवजात’ को पालती है...इस
बच्चे को...इस रिश्ते को...तुम कहती हो ना कि ये बच्चा..ये रिश्ता मर जाएगा एक दिन !
बस इतना ही सोच कर देखो न कि अगर हमारे बच्चे(रिश्ते) की मौत हमें पता
है...मौत की वजह भी पता हो...तारीख भी पता हो...तो क्या, हम उसकी फिक्र करना
छोड़ देंगे?...हम उसे चाहना छोड़ देंगे?....या हम उसे पालना छोड़ देंगे ?
अपने इस बच्चे को...इस रिश्ते को...मैं इसके आखिरी वक्त तक मुस्कुराते
देखना चाहता हूं....इसे इसके आखिरी लम्हें तक मैं इसे मोहब्बत देना चाहता हूं...और
पता है...?
जब इस बच्चे की धड़कने बंद हो जाएंगी...मेरी और तुम्हारी गोद में ये
रोना बंद कर देगा...बिस्तर पर हम दोनों के बीच सोते हुए...देर रात तक परेशान
करके...हमें जगाना बंद कर देगा...यानि ये ‘खत्म’ हो जाएगा...तो भी मैं इसे किसी को जलाने नहीं
दूंगा...मैं किसी को इसे नदी में बहाने नहीं दूंगा...मैं किसी को इसे तह-ए-खाक में
दफनाने नहीं दूंगा....
मैं इसे दफन कर लूंगा खुद में...जहां वो सिर्फ मेरा बनकर रह
जाएगा...पर मैं इसे इसकी आखिरी सांस तक पालुंगा...अपनी एक-एक सांस देकर के भी.
याद है, एक दिन तुमनने इस बच्चे को एक नाम देने के लिए कहा था?मेरे मना करने पर
तुम नाराज हो गए थे...याद है न...? क्या नाम देना ही इसकी ‘मौत का इलाज’ है...? अगर है तो नाम देना
वाजिब होगा...और अगर नहीं तो इसकी पहचान ‘मुझे और तुम्हें’ रहने दो...इसकी पहचान ‘हमसे’ रहने दो...मैं इसके
नाम से ज्यादा इसके इस पहचान से खुश हूं...जिसके मां-बाप और पहचान हम दोनों हैं...
मैं चाहता हूं कि तुम हमारे इस बच्चे के आखिरी वक्त में इसके साथ
रहो...शायद अपने आखिरी वक्त में तुम्हें साथ पाकर इसका लाइलाज दर्द कम हो...और तुम
कहते हो न कि हर मां-बाप अपने बच्चों के लिए जो करते हैं...वो फर्ज है उनका...समाज
के दिखावे के लिए करते हैं...
इस बच्चे को पालने में हमने समाज को कितना दिखाया है...कितना फर्ज
निभाया है...या फिर इन दोनों से इतर हम दोनों ने ही इसे बेहद ही शिद्दत से पाला
है...बिना खुदगर्जी के...हर उस मां-बाप की तरह जो अपने बच्चों को बेमकसद खुश देखना
चाहता है....ये तुम तय कर लेना...
लगता है इस बच्चे को जन्म मैंने दिया है...और तुमने इसे ऊंगली पकड़ कर
चलना सिखाया है...
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