Wednesday, 7 June 2017

हिन्दूस्तान का किसान हूँ मैं

 एक आस जगी की किसानो को उनका वाजि़ब हक़ मिलेगा, किसानों की आत्महत्या रुकेगी, पर हम भूल जाया करते हैं कि नेता किसानों को भूल जातें हैं......
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कभी देश का मैं सम्मान रहा हूँ
अपने शास्त्री का अभिमान रहा हूँ
किसान का बेटा होके भी
मैं सत्ता में विराजमान रहा हूँ

अपने वजूद के लिए लड़ रहा हूँ
पानी बिना मर रहा हूँ
फसलों के साथ ख़ुद को भी बेच रहा हूँ
मरते-मरते भी अपनी फ़सलों को सींच रहा हूँ

सरकारी कागज़ों में सन रहा हूँ
खुद की मिट्टी में मिट्टी बन रहा हूँ।
ख़ुद ऊगा के भी मैं खाने को तरस रहा हूँ
लो आज मैं  किसी की स्याही में बरस रहा हूँ

अन्नदाता कहते हो न?
लो देख लो हालत मेरी।
भले ऐसे पूजते हो क्या देवताओं को तुम?

हिंदुस्तान की ज़मी का उन्वान हूँ मैं
आज ख़ुद के ही लोगों से परेशान हूँ मैं

न मेरे लोग मेरे पास है
न सरकार से कोई आस है
मेरा जल रहा एहसास है
ऐ ख़ुदा कैसा ये अभिशाप है




मिट्टी के शब्दों की दर्खास्त है तुमसे, अन्न खरीदना, अन्नदाता मत ख़रीद लेना।

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