Sunday, 13 November 2016

kya koi kasur mera v tha




क्या कोई क़सूर मेरा भी था ?

था तू कैसा यार, जिसने गुलज़ार समां छीन लिया 
मेरा प्यार, मेरी हयात, हर खुशी छीन लिया। 

गुलज़ार ज़िन्दगी ले गया मेरी ,
क्या कोई कसूर मेरा भी था ?

तू हर सांस ले गया मेरी 
क्या कोई हक़ तेरा भी था ?

मीलों दूर होके भी वो मेरे पास थी 
मेरे टूटते सपनो की एक नयी सुबह, नयी आस थी 

मेरे ख़्वाबो की वो रानी थी 
मेरे एहसासों की कहानी थी 



चल,... सब कुछ भूल , तुझे माफ़ कर देता हूँ 
फिर से इस यारी की शुरुआत कर देता हूँ 

पर मेरे उस इश्क़ का क्या ??
मेरी उस ज़िन्दगी का क्या ??

जिसे तू मुझसे दूर ले गया 
मेरे जीने का दस्तूर ले गया 
मेरी हर खुशी  का फितूर ले गया 


चल माना मैंने हर  कहानी का ख़ुशनुमा अंजाम नहीं होता 
खुलुसियत से इश्क़ करके कोई बदनाम नहीं होता 

चल माना मैंने हर कहानी का खुशनुमा अंजाम नही होता 
जो आसानी से मिल जाए  वो प्यार, प्यार नहीं होता 

पर मेरी तो कहानी ही अधूरी रह गयी 
बिना उसके मेरे सपनो की चारदीवारी अधूरी रह गई  

सिर्फ कहानी क्या, मेरी तो ज़िन्दगी अधूरी रह गई ,
तनहा रहने को अब तो ये ज़िन्दगी पूरी रह गई   

मेरे दिल में एक बात रह जाएगी
मेरे एहसासों की कहानी, सिर्फ तेरे चलते अधूरी रह जाएगी।

क्या कोई कसूर मेरा भी था ???

A SMALL GIFT TO SHUAIB BHAI........

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