Saturday, 27 August 2016

आग


आग नहीं ये बर्बादी है
आज भूखी मेरी आबादी है।

जला नहीं बस घरबार, कितनो के ख़्वाब  जल गए
बिन ईर्ष्या आज कितनो के रुआब जल गए।

अश्क़ो की बूंदों से, आग बुझाने भागे थे
रोज़ी की  चाहत में, कितनी ही रातें जागे थे।

 जले हुए ख़्वाबो को देख, है मायूसी उमड़ आती
हाथो में है  रोटी, मगर खाई नहीं जाती।

 उस काले धुँए ने कर दी ज़िन्दगी भी काली
रह गए उस धुँए में, आज कितने  ही पेट ख़ाली।

जो उम्मीदो की ज़मी कल तक हमारी थी
वो जल गयी उम्मीदे सारी, आग ऐसी बिमारी थी।

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