सुनो हाकिम सुनों मैं प्रद्युमन बोल रहा हुं
मेरी मौत पर दुर्गा रो रही है...शिक्षा के मंदिर के कब्रगाह बन जाने पर सरस्वती रो रही है...मां की आंखों से गंगा निकल रही है...बोलो हाकिम बोलो आंखे खोलोगे कब, जुबांन खोलोगे कब...और नहीं खोलोगे तो सफेद कुर्ता पहन कर मानवता के जनाजे में तुम भी शामिल हो जाओं...मानवता की अस्थियां प्रवाहित कर दो...छोड़ दो ये सियासत...क्योंकि मेरी मां के आंसू सिर्फ न्याय मांग रहे हैं...
मेरी मां ने ताबीज पहना दिया था कि मुझे नजर नहीं लगेगी... मां के कलेजे का टुकड़ा बुरी नजर से बचा रहेगा...पर मेरी मां की भोली ममता शायद समझ नहीं पाई...कि हैवानियत इंसानियत का गला रेत देगी...मां समझ नहीं पाई थी कि शिक्षा का मंदिर उसके लाल के लिए कब्रगाह बन जाएगा...कितनी भोली है न मेरी मां...
सुनों सियासतदानों सुनों मेरे उस आखिरी खत के एहसासों को...जिसमें मैनें अपनी मां के लिए अपने मासूम एहसासों को नन्हीं उंगलियों से उस चार लाइन वाली कापी पर पेंसिल से गोजा था...सुनों लेकिन सियासत का सफेद कुर्ता उतार कर सुनना...नहीं तो बहरे ही रह जाओगे...जो मेरी मां का रुदन तुम तक पहुंच नहीं रहा...
सुनो रेयान स्कूल के मालिकों सुनों...मेरी वो आखिरी चीखें सुनों जो मेरे गले से निकले हर एक लहु की बूंद पर तोतली आवाज में मां को बुला रहे थे...पर किसी तक वो आवाज पहुंची नहीं...कान खोल कर सुनना शिक्षा के सौदागरों मेरी तोतली आवाज दिवारों और सियासत में सिमट न जाए...
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